
आम आदमी की लड़ाई में चुपचाप शामिल एक कवि कुमार मुकुल
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फातिमा भुट्टो की पहली पुस्तक ''साँग्स ऑफ ब्लड एण्ड सोर्ड'' अभी हाल में प्रकाशित हुई है। पाकिस्तान की राजनीति को समझने के लिए यह एक अत्यंत उपयोगी पुस्तक है। 28 वर्षीय फातिमा पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति जुल्फिकार अली भुट्टो की पौत्री तथा मीर मुर्तजा भुट्टो की बेटी हैं। यह किताब एक हद तक भुट्टो खानदान की गाथा है; इसमें किसी हद तक पाकिस्तान की राजनीति का लेखा-जोखा है; और यह एक पुत्री की अपने पिता को दी गई श्रद्धांजलि भी है।
फातिमा भुट्टो की लेखनी से पाकिस्तान के राजनीति के कुछ अनछुए पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है और कुछ जाने माने प्रसंगों की नए सिरे से व्याख्या भी हुई है। फातिमा अपने दादा जुल्फिकार अली भुट्टो को एक महान राजनेता के रूप में स्थापित करती हैं। इस पर अधिकतर राजनीतिक अध्येता सहमत नहीं होंगे। वे इसके साथ-साथ अपने पिता मीर मुर्त$जा भुट्टो और चाचा शाहनवाज भुट्टो के उथल-पुथल भरे जीवन को रेखांकित करती हैं। शाहनवाज की हत्या पेरिस में सीआईए ने करवाई थी: यह तथ्य छुपा हुआ नहीं है। मुर्त$जा की हत्या उनके छह साथियों के साथ खुले चौराहे पर उनकी ही बहन बेन$जीर की पुलिस ने ही कर दी थी; यह भी लोग जानते हैं।
इस पुस्तक में बेनजीर भुट्टो एक महत्वाकांक्षी, हृदयहीन, अवसरवादी व भ्रष्टाचारी नेता के रूप में सामने आती हैं। बेनजीर सत्ता में आने के लिए हर तरह के समझौते करती हैं। वे सीआईए और पाकिस्तानी सेना के चंगुल से बाहर नहीं निकल पातीं। उनकी सिद्धांतहीन राजनीति और कुशासन में पति आसिफ अली जरदारी की भूमिका किसी सूरत में कम नहीं थी। जिन लोगों के मन में 1972 में अपने पिता के साथ शिमला आई मासूम बेनजीर की तस्वीर है, उन्हें इस पुस्तक में दिए विवरणों से शायद धक्का लगेगा।
दूसरी ओर फातिमा यह स्थापित करने की कोशिश करती हैं कि उनके पिता मुर्तजा ही जुल्फिकार अली भुट्टो की विरासत के सच्चे अधिकारी थे। लेखिका इस बात को जोर देकर कहती हैं कि भुट्टो सीनियर बड़े जमींदार होते हुए भी समाजवादी थे तथा वे अमेरिका के बजाय चीन को अपना विश्वसनीय मित्र मानते थे। इसी वजह से जनरल जिया ने उन्हें फांसी पर लटका दिया था। लेखिका के अनुसार इस विरासत को ही आगे बढ़ाने का काम मुर्तजा व शाहनवाज कर रहे थे। इससे पाकिस्तान के फौजी और बेनजीर दोनों लगातार भयभीत रहते थे। इसीलिए दोनों भाइयों को एक लंबा वक्त विदेशों में राजनीतिक शरणार्थी के रूप में गुजारना पड़ा। फातिमा भुट्टो के इन आकलनों में सत्य का अंश है, लेकिन वे इस बात को नहीं समझ पातीं या स्वीकार नहीं कर पातीं कि भुट्टो परिवार के सभी सदस्य बुनियादी रूप में अलोकतांत्रिक राजनीति के खिलाड़ी थे। इनमें से किसी ने भी देश में जनतंत्र को पुष्ट करने के लिए कभी कुछ नहीं किया।
आज भुट्टो परिवार की राजनीति के वारिस बनकर आसिफ अली जरदारी बैठे हुए हैं। यह पाकिस्तान की विडंबना है। फातिमा भुट्टो संभवत: इस मोड़ पर स्वयं को उस जगह पर देखना चाहती है जहां कभी उनके दादा थे; और जहां उनके पिता नहीं पहुंच पाए। फातिमा और उनके छोटे भाई जुल्फी दोनों कम उम्र हैं एवं सक्रिय राजनीति में उन्होंने अब तक हिस्सेदारी नहीं की है। लेकिन अनुमान होता है कि फातिमा आने वाले दिनों में अपने देश की राजनीति में सक्रिय होंगी।
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